माँ की हालत सुबह से ही काफी ख़राब थी, न गले से आवाज़ निकल पा रही थी और न हिलने-डुलने भर की ताकत ही थी। घर में मिलने आने वालों का तांता लगा हुआ था, पिता माँ के पास चुपचाप बैठे हुए थे, ज़माने भर की पीड़ा को अपने मुख पर समेटे हुए। बेटा अभी एक अबोध बालक है, विद्यालय से आते ही अपने हमजोलियों को इकठ्ठा करके खेलने निकल पड़ा। कुछ दिनों बाद उसका जन्मदिन आने वाला था। घर की हालत कुछ ख़ास अच्छी न थी पर माता-पिता की इच्छा थी कि बेटा पढ़-लिखकर खूब नाम कमाए।
बेटा अभी घर के बहार खेल ही रहा था कि सहसा कुछ रिश्तेदार उसे ज़बरन खींचकर घर के अन्दर ले आये। अभी उसका घर आने का मन न था, थोड़ी देर और खेलना चाहता था पर जब सुना कि माँ बुला रही है तो जिद छोड़ दी, फ़ौरन मान गया। माँ के पास जाते ही बड़े लाड़ से लिपट गया और बोल, "देखो, मैं विद्यालय से लौट भी आया और तुम्हे अभी तक सोना है? मुझको तो सोने नहीं देती देर तक? उठो माँ, भूख लगी।"
माँ के चेहरे पर फीकी सी एक मुस्कान उभर उठी। उसने हौले से एक छोटा सा तोहफा उठाया और बड़े अरमान से बेटे की तरफ देखते हुए उसकी नन्हीं-२ हथेलियों पर रख दिया। बेटे को समझ नहीं आया, इतनी सी चीज़ उठाने के लिए माँ को इतनी ताकत क्यों लगानी पड़ रही है, लेकिन वह अपना सवाल तोहफा पाने की ख़ुशी में भूल गया- "तुम्हें तो सब याद रहता है माँ। देखिये तो पिताजी, माँ ने मुझे क्या दिया है!" बेटे के चेहरे पर ख़ुशी देखने के बाद माँ ने अपनी आँखें धीरे से बंद कर लीं। घर में अचानक शोर होने लगा, बेटे की समझ में कुछ भी नहीं आया।
इस बात को अब काफी समय बीत चुका है। बेटा अब भी पहले की तरह शरारती है, विद्यालय में सबको खूब तंग करता है। नेहा को तंग करना तो उसे खूब भाता है। कभी उसकी चोटियाँ खींचता तो कभी उसकी कॉपी या पेन्सिल लेकर भाग जाता। नेहा बस चीखती-रोती रह जाती। आखिर उसे भी मौका मिला, उस बालक का पेंसिल बॉक्स एक दिन उसके हाथ में आया। वह बोली, "देखो! मेरी पुस्तक वापस कर दो वरना मैं इसे फेंक दूँगी।" बालक अपनी मस्ती में था, उसने नहीं सुना। नेहा ने फिर कहा, बार-२ कहा, कई बार कहा और आखिर वही किया जो वह कहती जा रही थी। एक ज़ोरदार आवाज़ के साथ सारा सामान फर्श पर था। कक्षा में सन्नाटा छा गया, नेहा को लगा उसकी तो अब खैर नहीं। बालक आगे बढ़ा, नेहा सहम गयी, वह उसके करीब आया और चुपचाप अपना सारा सामान समेटने में लग गया। हैरानी की बात, हमेशा उत्पात मचाने वाला वह बालक अब एकदम शांत था।
बेटा अभी घर के बहार खेल ही रहा था कि सहसा कुछ रिश्तेदार उसे ज़बरन खींचकर घर के अन्दर ले आये। अभी उसका घर आने का मन न था, थोड़ी देर और खेलना चाहता था पर जब सुना कि माँ बुला रही है तो जिद छोड़ दी, फ़ौरन मान गया। माँ के पास जाते ही बड़े लाड़ से लिपट गया और बोल, "देखो, मैं विद्यालय से लौट भी आया और तुम्हे अभी तक सोना है? मुझको तो सोने नहीं देती देर तक? उठो माँ, भूख लगी।"
माँ के चेहरे पर फीकी सी एक मुस्कान उभर उठी। उसने हौले से एक छोटा सा तोहफा उठाया और बड़े अरमान से बेटे की तरफ देखते हुए उसकी नन्हीं-२ हथेलियों पर रख दिया। बेटे को समझ नहीं आया, इतनी सी चीज़ उठाने के लिए माँ को इतनी ताकत क्यों लगानी पड़ रही है, लेकिन वह अपना सवाल तोहफा पाने की ख़ुशी में भूल गया- "तुम्हें तो सब याद रहता है माँ। देखिये तो पिताजी, माँ ने मुझे क्या दिया है!" बेटे के चेहरे पर ख़ुशी देखने के बाद माँ ने अपनी आँखें धीरे से बंद कर लीं। घर में अचानक शोर होने लगा, बेटे की समझ में कुछ भी नहीं आया।
इस बात को अब काफी समय बीत चुका है। बेटा अब भी पहले की तरह शरारती है, विद्यालय में सबको खूब तंग करता है। नेहा को तंग करना तो उसे खूब भाता है। कभी उसकी चोटियाँ खींचता तो कभी उसकी कॉपी या पेन्सिल लेकर भाग जाता। नेहा बस चीखती-रोती रह जाती। आखिर उसे भी मौका मिला, उस बालक का पेंसिल बॉक्स एक दिन उसके हाथ में आया। वह बोली, "देखो! मेरी पुस्तक वापस कर दो वरना मैं इसे फेंक दूँगी।" बालक अपनी मस्ती में था, उसने नहीं सुना। नेहा ने फिर कहा, बार-२ कहा, कई बार कहा और आखिर वही किया जो वह कहती जा रही थी। एक ज़ोरदार आवाज़ के साथ सारा सामान फर्श पर था। कक्षा में सन्नाटा छा गया, नेहा को लगा उसकी तो अब खैर नहीं। बालक आगे बढ़ा, नेहा सहम गयी, वह उसके करीब आया और चुपचाप अपना सारा सामान समेटने में लग गया। हैरानी की बात, हमेशा उत्पात मचाने वाला वह बालक अब एकदम शांत था।